Rishabhdev bhagwan ka jiwan parichay - ऋषभदेव भगवान का जीवन परिचय #Aadinath #History
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Jain Dharam Ke Pratham Tirthankar rishabhdev bhgwan ka jiwan parichay
जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव भगवान का जीवन परिचय
भगवान ऋषभदेव जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर हैं। ... जो संसार सागर (जन्म मरण के चक्र) से मोक्ष तक के तीर्थ की रचना करें, वह तीर्थंकर कहलाते हैं। ऋषभदेव जी को आदिनाथ भी कहा जाता है। भगवान ऋषभदेव वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर हैं।
जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ का जन्म चैत्र कृष्ण नौवीं के दिन सूर्योदय के समय हुआ। उन्हें जन्म से ही संपूर्ण शास्त्रों का ज्ञान था।
उन्हें ऋषभनाथ, ऋषभदेव, आदिब्रह्मा, पुरुदेव और वृषभदेव भी कहा जाता है।
वे समस्त कलाओं के ज्ञाता और सरस्वती के स्वामी थे। युवा होने पर कच्छ और महाकच्छ की दो बहनों यशस्वती (या नंदा) और सुनंदा से ऋषभनाथ का विवाह हुआ। नंदा ने भरत को जन्म दिया, जो आगे चलकर चक्रवर्ती सम्राट बने। उसी के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा (जैन धर्मावलंबियों की ऐसी मान्यता है)। आदिनाथ ऋषभनाथ सौ पुत्रों और ब्राह्मी तथा सुंदरी नामक दो पुत्रियों के पिता बने।
भगवान ऋषभनाथ ने ही विवाह-संस्था की शुरुआत की और प्रजा को पहले-पहले असि (सैनिक कार्य), मसि (लेखन कार्य), कृषि (खेती), विद्या, शिल्प (विविध वस्तुओं का निर्माण) और वाणिज्य-व्यापार के लिए प्रेरित किया। कहा जाता है कि इसके पूर्व तक प्रजा की सभी जरूरतों को क्लपवृक्ष पूरा करते थे। उनका सूत्र वाक्य था- 'कृषि करो या ऋषि बनो।'
ऋषभनाथ ने हजारों वर्षों तक सुखपूर्वक राज्य किया फिर राज्य को अपने पुत्रों में विभाजित करके दिगंबर तपस्वी बन गए। उनके साथ सैकड़ों लोगों ने भी उनका अनुसरण किया। जब कभी वे भिक्षा मांगने जाते, लोग उन्हें सोना, चांदी, हीरे, रत्न, आभूषण आदि देते थे, लेकिन भोजन कोई नहीं देता था।
इस प्रकार, उनके बहुत से अनुयायी भूख बर्दाश्त न कर सके और उन्होंने अपने अलग समूह बनाने प्रारंभ कर दिए। यह जैन धर्म में अनेक संप्रदायों की शुरुआत थी। जैन मान्यता है कि पूर्णता प्राप्त करने से पूर्व तक तीर्थंकर मौन रहते हैं। अत: आदिनाथ को एक वर्ष तक भूखे रहना पड़ा। इसके बाद वे अपने पौत्र श्रेयांश के राज्य हस्तिनापुर पहुंचे। श्रेयांस ने उन्हें गन्ने का रस भेंट किया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। जैन धर्म में वह दिन आज भी 'अक्षय तृतीया' के नाम से प्रसिद्ध है। हस्तिनापुर में आज भी जैन धर्मावलंबी इस दिन गन्ने का रस पीकर अपना उपवास तोड़ते हैं।
इस प्रकार, एक हजार वर्ष तक कठोर तप करके ऋषभनाथ को कैवल्य ज्ञान (भूत, भविष्य और वर्तमान का संपूर्ण ज्ञान) प्राप्त हुआ। वे जिनेंद्र बन गए।
पूर्णता प्राप्त करके उन्होंने अपना मौन व्रत तोड़ा और संपूर्ण आर्यखंड में लगभग 99 हजार वर्ष तक धर्म-विहार किया और लोगों को उनके कर्तव्य और जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्ति पाने के उपाय बताए। अपनी आयु के 14 दिन शेष रहने पर भगवान ऋषभनाथ हिमालय पर्वत के कैलाश शिखर पर समाधिलीन हो गए। वहीं माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन उन्होंने निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त किया। अत: माघ कृष्ण चतुर्दशी का दिन जैन धर्म में भगवान ऋषभदेव के निर्वाणोत्सव दिवस के रूप में मनाया जाता है।
।जैन धर्म में चौबीस तीर्थकर है जिनमे से सबसे पहले भगवान ऋषभदेव हुए इनका जन्म चैत्र कृष्ण नवमी में अयोध्या में हुआ था इनके पिता का नाम महाराज नाभिराय व माता का नाम महारानी मरूदेवी था | ऋषभ की दो पत्नियां थी, सुनंदा और यसस्वाती (जिसे नंद या सुमंगाला भी कहा जाता है)। उनके पास सौ और बेटे दो बेटियां थीं उनका सबसे बड़ा बेटा, सुमनंगा से पैदा हुआ था, भारत था। भारत एक चक्रवर्ती (दुनिया का शासक) था, जिसने बाद में मोक्ष प्राप्त किया और एक सिद्धांत के रूप में पूजा की। भारत को इस महान शासक के बाद भारतवर्ष या भरत कहा जाता है। भगवान ऋषभ के अन्य पुत्रों में बाहुबली भी थे, जिन्होंने तपस्या के बाद मुक्ति प्राप्त की थी। बाहुबली ने 1000 साल पहले उद्धृत मोक्षों में ध्यान दिया था। ऋषभ की दो बेटियां ब्रह्मी और सुंदरी थे वे ऋषभदेव के समवर्धन में भी आर्यिकस के रूप में उपस्थित थे। भगवान ऋषभदेव को आदिनाथ के नाम से भी जाना जाता है |
जैन ग्रंथो के अनुसार ऋषभदेव ने गहन तपस्या की व 1000 वर्ष की लम्बी तपस्या के बाद ही इन्हे ज्ञान की प्राप्ति हुई थी |ऐसा माना जाता है कि इंद्र ने विश्व को छोड़ने के लिए ऋषभ को जागृत करने के लिए एक अप्सरा निलजाणा को भेजा था। निलांजाना ऋषभ के पसंदीदा नर्तकी में से एक थी। एक बार ऋषभ के सामने नृत्य करते समय नीलंजाना की मृत्यु हो गई। यह देखकर ऋषभदेव ने वैराग्य धारण कर लिया (सभी विश्व मामलों से पृथक) उन्होंने घर छोड़ दिया और चैत्र कृष्ण नवमी पर दीक्षा ली। यह दिन तप-कल्याणक के रूप में मनाया जाता है।
दीक्षा लेने के बाद उन्होंने कुछ समय के लिए जंगल में ध्यान किया। फिर उन्होंने शिष्यों को इकट्ठा करने और जैन धर्म का प्रचार करने के लिए प्रयास किया उन्होंने हस्तिनापुर में राजा श्रेयन्स के तपस्या के रूप में अपना पहला दान दिया। ऋषभदेव ज्ञान प्राप्त करने वाले पहले व्यक्ति थे। उन्होंने सिद्धार्थ जंगल में एक बरगद के पेड़ के तहत फालगुन कृष्ण 11 पर सर्वज्ञता (केल्गियान) प्राप्त की, वर्तमान में प्रयाग में। इस दिन ऋषभदेव के ज्ञान-कल्याणक के रूप में मनाया जाता है
जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव भगवान का जीवन परिचय
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